कैसे खोलूं मन को, कैसे दर्पण देखूँ |
कैसे दूर करू अपने मन की व्यथा को ||
सब कुछ मेरे पास है, फिर भी अनजान हूँ |
क्यों हूँ व्यथित और क्यों परेशान हूँ ||
क्यों हूँ व्यथित और क्यों परेशान हूँ ||
जीवन सुन्दर पाया है, भिन्न रंगो से सजाया है |
फिर भी उदास हूँ, अपने से ही अनजान हूँ ||
क्या खोज रहा मेरा मन, क्यों मुझे कुछ नहीं बताता है |
परेशान हूँ, अपने से ही अनजान हूँ ||
परेशान हूँ, अपने से ही अनजान हूँ ||
संघर्ष मुझे निखारते हैं, कठनाईयां मुझे सवाँरती हैं |
जीवन का मैं लेता आनंद, फिर भी मैं क्यों उदास हूँ ||
जीवन का मैं लेता आनंद, फिर भी मैं क्यों उदास हूँ ||
बहुत से प्रश्नो ने मुझको घेरा है, पर उत्तरों से मैं अनजान हूँ |
हर बार मन के इस चक्रव्यूह मैं फँसता हूँ, हर बार अर्जुन बन इस से निकलता हूँ ||
हर बार मन के इस चक्रव्यूह मैं फँसता हूँ, हर बार अर्जुन बन इस से निकलता हूँ ||
क्या पाना चाहता हूँ जीवन से, किसकी मुझे तलाश है |
जानता नहीं कुछ भी इसलिए परेशान हूँ ||
जानता नहीं कुछ भी इसलिए परेशान हूँ ||
कैसे खोलूं मन को, कैसे दर्पण देखूँ |
कैसे दूर करू अपने मन की व्यथा को ||
कैसे दूर करू अपने मन की व्यथा को ||
(लेखक - धीरेन्द्र सिंह )
Bhaut Sundar likha hai
ReplyDeleteBeautiful thoughts..bhaiya
ReplyDeleteBeautiful thoughts..bhaiya
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