अकेलापन — यह हमारी पसंद है या मजबूरी?
यह बात हर व्यक्ति के अपने अनुभव, परिस्थितियों और मन की जरूरतों पर निर्भर करती है।
जन्म से लेकर पूरी जिंदगी हम लोगों, रिश्तों और समाज के बीच रहते हैं। इसलिए जब कोई कहता है, “मुझे अकेले रहना पसंद है,” तो अक्सर वह सच्चा अकेलापन नहीं होता…
वह तन्हाई होती है — एक ऐसा मौहाल जहाँ सिर्फ हम होते हैं, चार दीवारी होती है और भीतर का खालीपन।
अकेलेपन का असली अर्थ लोग अक्सर गलत समझ लेते हैं। उन्हें लगता है कि सब से कट जाना, रिश्तों से दूर हो जाना या खुद को दुनिया से अलग कर लेना ही अकेलापन है।
लेकिन सच में अकेलापन एकांत है — स्वयं से मिलने का समय, खुद को पहचानने का अवसर।
इसी तरह का एकांत गौतम बुद्ध ने जिया, स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस ने जिया।
हर वह व्यक्ति जिसने दुनिया को दिशा दी, वह पहले स्वयं के भीतर उतरा।
इसलिए अकेले रहना बुरा नहीं, अगर आप इसका उपयोग:
अपने लक्ष्य को पाने,
अपने विचार साफ करने,
अपनी ऊर्जा वापस पाने,
और स्वयं से मिलने के लिए करते हैं, तो अकेलापन आपका सबसे बड़ा सहारा बन सकता है।
लेकिन यही अकेलापन अगर तन्हाई बन जाए, अगर आप दुनिया से कटने लगें, अगर बोलने-सुनने का मन ना करे, तो यह धीरे-धीरे मन को थका देता है।
आख़िर में, जीवन का असली अर्थ एक-दूसरे का साथ निभाने में ही है।
हम सामाजिक प्राणी हैं; हमें भावनात्मक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए साथ, संवाद और जुड़ाव की ज़रूरत होती है।
एकांत अपनाइए — तन्हाई नहीं।
क्योंकि एकांत आपको खुद से जोड़ता है,
और तन्हाई खुद से दूर कर देती है।
(धीरेन्द्र सिंह)
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