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Friday, March 24, 2023

कृष्ण भावना से जीना

 


मुझको लगा की तुम असाध्य हो ।

पर तुम तो मेरी चेतना का सार हो ।।


मुझको लगा तुम भौतिक हो ।

पर तुम तो अविनाशी हो ।।


मुझको लगा की तुम सिर्फ मेरे हो ।

पर तुम तो हर जीव के हो ।।


मन भटका, भटकी मेरी चेतना । 

तुम अराध्य मेरे, मैं तेरी रचना ।।


तुम ही लिखते, तुम ही मिटाते ।

सारा जीवन खेल हो रचाते ।।


फसा माया में, जीव से तुम क्या क्या खेल नही कराते ।

खूब रुलाते, खूब हसाते, फिर इससे तुम्ही बचाते ।।


हम सब बंधे कर्मों से या कर्म हम से बंधे हैं ।

करता कराता तू है हम तो व्यर्थ ही उलझन में हैं ।।


मुझको लगा की तुम असाध्य हो ।

पर तुम तो मेरी चेतना का सार हो ।।


                                                (लेखक - धीरेन्द्र सिंह)

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