मुझको लगा की तुम असाध्य हो ।
पर तुम तो मेरी चेतना का सार हो ।।
मुझको लगा तुम भौतिक हो ।
पर तुम तो अविनाशी हो ।।
मुझको लगा की तुम सिर्फ मेरे हो ।
पर तुम तो हर जीव के हो ।।
मन भटका, भटकी मेरी चेतना ।
तुम अराध्य मेरे, मैं तेरी रचना ।।
तुम ही लिखते, तुम ही मिटाते ।
सारा जीवन खेल हो रचाते ।।
फसा माया में, जीव से तुम क्या क्या खेल नही कराते ।
खूब रुलाते, खूब हसाते, फिर इससे तुम्ही बचाते ।।
हम सब बंधे कर्मों से या कर्म हम से बंधे हैं ।
करता कराता तू है हम तो व्यर्थ ही उलझन में हैं ।।
मुझको लगा की तुम असाध्य हो ।
पर तुम तो मेरी चेतना का सार हो ।।
(लेखक - धीरेन्द्र सिंह)