क्या दिन थे वो बचपन के |
सोचता हूँ तो कहानी लगती है, एक फ़साना लगता है |
जिंदगी कब रूकती है, यह तो चलती रहती है |
पर अब वो बेफिक्री कहाँ, वो किस्से कहानी कहाँ |
वो दोस्तों के साथ मस्ती के, वो सुनहरे पल कहाँ |
अब वो जिंदिगी कहाँ |
सोचता हूँ तो कहानी लगती है......
घंटो दोस्तों से बात करना, आने वाली जिंदगी के खुआब बुनना |
दोस्तों का यूँ चिड़ाना और हमारे लिए सबसे लड़ना |
कभी भुलाया नहीं जाता |
जिंदगी के कई मोड़ पर, इन किस्सों का मुख पर मीठी सी मुश्कान का छोड़ जाना |
हमे हमेशा अपने दोस्तों से जोड़े रखता है |
सोचता हूँ तो कहानी लगती है......
(लेखक - धीरेन्द्र सिंह )
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